मांगता है तू धन दे देते है, वो अपनी औलाद तुझे फिर भी ना आई शर्म ! "दहेज़": ©Provided by Bodopress/Kajal Shah |
कविता : दहेज़
काजल साह : स्वरचित
18 May 2021
***दहेज़***
मांगता है तू धन
दे देते है वो अपनी औलाद तुझे
फिर भी ना आई शर्म तुझे
आँखो में बेशर्मी की हाय लेकर
दिल में पैसो की आस लेकर
फिर मांग पड़ा तू दहेज़।
आसान था क्या?
उन्होंने तुझे दे दी अपनी बेटी
आसान था क्या?
उन्होंने अपने कलेजे के
टुकड़े को कन्यदान में
दान कर दिया
छाती से लिपट कर सोती थी
माँ के गोद में
अब वो रही है
माँ के पल्लू को
खोज रही है
दिया है दर्द तूने
अपनी दकायानुसी सोच से
उसे गिराता रहा
मारता रहा
झुकाता रहा
और दहेज़ मांगता रहा।
रो रही है माँ
हो रहा है दुख उस बाप को
जिसने पाई - पाई करके
दे दिया
अपना धन सारा
नहीं शर्म है तुझमे अब
बढ़ गई है लालच तेरी
माँ के लाल को तू तौल रहा है
पैसों की तराजू में
तू भी तो होगा
अपनी माँ की जान
तब क्यों शता रहा है, तू
अपने दकायानुसी सोच से?
***xxx***
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